– अचम्भित हूँ समाज के उन दरिंदो से जो शादी विवाह के समय किसी बाप की बेटी को अपनाने के लिए अनेकानेक बार अपनी कसौटी पर कसते हैं और किसी बाप की हृदयकनिका को फेल कर देते हैं जबकि बेटी के समतुल्य भी नही होते उनके लड़के।और बाप इधर उधर बेटी के विवाह के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाकर मन मसोस कर भटकता रह जाता है।हद तो तब हो जाती है जब इक्कीसवी सदी के भारत का नवयुवक अपने परिवार सहित नाना-नानी, बुआ-फूफा, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, बहन-बहनोई आदि सम्बन्धियो के साथ किसी बाप की हृदयकनिका लाडली को पसन्द कर मनवांछित दहेज की मांग प्राप्त करते हुए भारी भरकम बरातियों एवम शराबियो के फूहण हंगामे के बीच बेटी के बाप की गाढ़ी कमाई से की गयी स्वागत सत्कार की ब्यवस्था को तारतार कर देता है और लाचार बाप मन मसोस कर रह जाता है।यही नही बेटी के ससुराल पहुंचते ही घर-परिवार, नात-रिश्तेदार, किसी बाप की लाडली को अपना गुलाम समझकर दहेज कम मिलने, स्वागत-सत्कार की उलाहना और तानो की बौछार करते हुए गुलामी का जीवन जीने को मजबूर कर देते हैं। जबकि लड़की को पता होता है, कि मेरे मां- बाप ने अपना सब कुछ दांव में लगाकर उसके यह रिश्ता किया है। बात-2 में उलाहना और तिरस्कार जब ससुराल पक्ष से उसको मिलता है, तो लड़की मजबूरन अपने आपको आग के हवाले कर देती है। क्या इक्कीसवी सदी के भारत की यह सामाजिक विडम्बना नही तो और क्या हो?
सबसे बडी विडम्बना हमारे समाज कि यह है, कि यथार्थ सत्य जानते हुए भी यह सब करते हैं, और इसे सामाजिक रीति-रिवाज का रूप देते हैं।
जब हम लड़के के पिता होते हैं तो यह भूल जाते हैं कि हमारे भी कन्या है। इस बात को नजरंदाज करते हुए हम लड़की पक्ष से तरह-2 से दहेज रूपी गिफ्ट की मांग करते हैं।
क्या हमारे समाज का परिदृश्य बदल पायेगा, और दहेज रूपी दानव से कब हमारे समाज को निजात मिल पायेगी?
- ईं0 मंजुल तिवारी की कलम से